Sun, 29 December 2024 11:46:55pm
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने हाल ही में अहम फैसले में कहा कि किसी भी आपराधिक मामले में आरोपियों के बीच अलग-अलग समझौता स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सभी आरोपियों का सामूहिक परीक्षण होना अनिवार्य है।
कोर्ट का फैसला और पृष्ठभूमि
मामला एक याचिका [राकेश दास बनाम राज्य हरियाणा और अन्य] का था, जिसमें आरोपियों के बीच आंशिक समझौते की वैधता पर सवाल उठाया गया था। जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस सुदीप्ति शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि इस प्रकार के आंशिक समझौते भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 246 के विपरीत हैं, जो सामूहिक परीक्षण को अनिवार्य बनाता है।
आंशिक समझौते पर कोर्ट का दृष्टिकोण
कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता या पीड़ित को आपराधिक न्याय प्रणाली का नियंत्रक बनने से रोकना आवश्यक है। इसलिए अदालतें आंशिक समझौतों को स्वीकार नहीं कर सकतीं और इसे अस्वीकार करना ही उचित है। कोर्ट ने अतीत में कई एकल-न्यायाधीश पीठों द्वारा आंशिक समझौतों की स्वीकृति को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों के विपरीत बताया।
आंशिक समझौते से उत्पन्न संभावित समस्याएं
खंडपीठ ने कहा कि आंशिक समझौते से मुकदमे के दौरान कई प्रकार की जटिल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। अगर शिकायतकर्ता बाद में आंशिक समझौते को मान्यता नहीं देते हैं, तो मुकदमे में अन्य आरोपियों के खिलाफ दुर्भावना का आरोप लग सकता है।
कोर्ट ने कहा कि आंशिक समझौते से मुख्य आरोपी से जुड़े मामलों में न्यायिक कार्रवाई कमज़ोर हो सकती है, जिससे अभियोजन पक्ष सामूहिक आपराधिक जिम्मेदारी को सिद्ध नहीं कर पाएगा। इसका प्रतिकूल प्रभाव आपराधिक न्याय प्रणाली और पीड़ित के न्याय पर पड़ेगा।
मुख्य आरोपियों पर आंशिक समझौते का असर
कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर मुख्य आरोपियों के साथ समझौता कर लिया जाए तो शेष आरोपियों का मुकदमा प्रतिशोध का साधन बन सकता है, जिससे वे शोषित और उत्पीड़ित महसूस कर सकते हैं। ऐसे में न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होने की संभावना रहती है।
न्यायिक आत्मसंयम की आवश्यकता
कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालयों को आंशिक समझौते स्वीकार करते समय आत्मसंयम बरतने की आवश्यकता है। समझौते को आंशिक रूप से स्वीकार करने से मुकदमे की प्रक्रिया में विकृति उत्पन्न हो सकती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य ही प्रभावित हो सकता है।
एडवोकेट्स की भूमिका
इस मामले में न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) के रूप में अधिवक्ता पीएस आहलूवालिया ने अपना पक्ष रखा और उनका सहयोग अधिवक्ता रौनक सिंह औलख ने दिया।
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण उदाहरण है कि आपराधिक मामलों में सभी आरोपियों का सामूहिक परीक्षण ही उचित माना जाएगा।