Sun, 29 December 2024 11:48:00pm
एक अपराध का पीड़ित अदालत में अपनी आवाज़ बुलंद कर सकता है, लेकिन क्या उसकी दलीलें लोक अभियोजक से अधिक प्रभावी हो सकती हैं? दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में इस विवादास्पद मुद्दे पर अपनी राय देते हुए पीड़ित के अधिकारों और लोक अभियोजक की भूमिका के बीच स्पष्ट सीमा खींच दी है।
लोक अभियोजक की प्राथमिक भूमिका
न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद की अध्यक्षता में इस मामले पर सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया गया कि लोक अभियोजक अदालत के स्वतंत्र अधिकारी के रूप में कार्य करता है। उन्होंने कहा कि पीड़ित को अपनी बात रखने का अधिकार तो है, लेकिन उसकी दलीलें लोक अभियोजक की प्राथमिकता को प्रभावित नहीं कर सकतीं। पीड़ित का वकील अभियोजन के तर्कों में छूटे हुए पहलुओं को जोड़ सकता है, लेकिन उसे लोक अभियोजक की दलीलों को "गलत" कहने का अधिकार नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक धोखाधड़ी के आरोपों से संबंधित था, जिसमें शिकायतकर्ता ने मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें उसने दलील देने की अनुमति नहीं दी थी। अदालत ने स्पष्ट किया कि आपराधिक कार्यवाही में पीड़ित की भूमिका केवल अभियोजन की सहायता तक सीमित होती है और उसे स्वतंत्र रूप से मौखिक दलीलें देने की अनुमति नहीं है।
अदालत का निर्णय और टिप्पणी
इस मामले में न्यायमूर्ति प्रसाद ने निर्णय देते हुए कहा कि पीड़ित को हर चरण पर सुना जाना चाहिए, लेकिन उसकी भूमिका अभियोजन के पूरक के रूप में रहेगी। अदालत ने यह भी कहा कि पीड़ित को केवल उसी समय मौखिक दलीलें देने की अनुमति हो सकती है जब यह अभियोजन के तर्कों को मजबूत करता हो।
पीड़ित अधिकारों की न्यायिक समीक्षा
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(wa) के तहत पीड़ित के अधिकारों को पहले ही मान्यता दी गई है। 154वें विधि आयोग की रिपोर्ट और 2003 में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार पर समिति की रिपोर्ट में पीड़ित के अधिकारों को सशक्त बनाने के सुझाव दिए गए थे। हाई कोर्ट के इस फैसले में इन्हीं अधिकारों और उनके सीमाओं को एक बार फिर से रेखांकित किया गया है।
अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, संयुक्त राष्ट्र ने 1985 में "पीड़ितों के न्याय के लिए बुनियादी सिद्धांत" अपनाए थे। इसके अलावा, यूरोपीय संघ और अमेरिका ने भी अपराध पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कानून बनाए हैं। भारत में इन मानकों को अपनाने की प्रक्रिया धीरे-धीरे विकसित हो रही है।
मामले में शामिल अधिवक्ता
इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से कनहैया सिंघल और सुश्री चांदनी शर्मा ने पैरवी की। अभियोजन पक्ष की ओर से युधवीर सिंह चौहान, एपीपी उपस्थित रहे।
दिल्ली हाई कोर्ट का यह निर्णय न्याय प्रणाली में पीड़ितों की भूमिका और लोक अभियोजक की प्राथमिकता को संतुलित करता है। यह फैसला न केवल पीड़ितों को उनके अधिकारों का एहसास कराता है, बल्कि न्याय प्रणाली में उनके सीमित, लेकिन महत्वपूर्ण योगदान को भी रेखांकित करता है।