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पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने मध्यस्थता पर दिए ऐतिहासिक फैसले, सीमित अधिकार क्षेत्र पर जोर



अजय त्यागी 2024-11-21 08:57:13 चंडीगढ़

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट - Photo : Internet
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट - Photo : Internet
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पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत धारा 34 और 37 के अधिकार क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस फैसले ने न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं को पुनः परिभाषित किया है और मध्यस्थता पुरस्कारों की स्वायत्तता को मजबूती प्रदान की है।

फैसले की पृष्ठभूमि
गुरुग्राम के गांव तिगरा के भूमि मालिकों और एक अपीलकर्ता कंपनी के बीच वर्ष 2005 में एक विकास समझौता हुआ था। इस समझौते के तहत, अपीलकर्ता ने एक वाणिज्यिक परियोजना के लिए भूमि का उपयोग करना था और इसके बदले एक बगैर ब्याज का सुरक्षा जमा दिया। यदि परियोजना समय पर पूरी नहीं होती, तो सुरक्षा राशि जब्त करने का प्रावधान था।

परियोजना के मध्य में भूमि का एक हिस्सा सरकारी अधिग्रहण में चला गया, जिससे समझौते को रद्द करना पड़ा। अपीलकर्ता ने मध्यस्थता की मांग की लेकिन विवाद का फैसला भूमि मालिकों के पक्ष में हुआ। इसके बाद, अपीलकर्ता ने धारा 34 और फिर धारा 37 के तहत मामले को चुनौती दी, जिसे विशेष वाणिज्यिक न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ने खारिज कर दिया।

मुख्य दलीलें

  • अपीलकर्ता की दलीलें: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि समझौते में समय को "महत्वपूर्ण तत्व" के रूप में तय नहीं किया गया था और मध्यस्थ ने अनुबंध की गलत व्याख्या की।
  • उत्तरदाता का पक्ष: भूमि मालिकों ने कहा कि मध्यस्थ ने हर बिंदु पर विस्तार से विचार किया था और धारा 34 के तहत न्यायालय का अधिकार सीमित था।

न्यायालय का अवलोकन
हाई कोर्ट की खंडपीठ ने दो मुख्य बिंदुओं पर जोर दिया:

  1. धारा 34 के अधिकार क्षेत्र की सीमित प्रकृति: न्यायालय केवल उन मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है, जहां पुरस्कार सार्वजनिक नीति के खिलाफ हो या स्पष्ट रूप से अवैध हो।
  2. धारा 37 के तहत अपील का दायरा: अपीलीय अदालत केवल यह सुनिश्चित कर सकती है कि धारा 34 अदालत ने अपनी सीमाओं के भीतर काम किया हो।
  3. कोर्ट ने "नेशनल हाइवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया बनाम हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड" और "एसोसिएट बिल्डर्स बनाम डीडीए" जैसे प्रकरणों का हवाला देते हुए यह कहा कि मध्यस्थता पुरस्कार को केवल वैकल्पिक दृष्टिकोण के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।

फैसले के परिणाम
न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता समझौते की शर्तों को पूरा करने में विफल रहा और भूमि अधिग्रहण के बावजूद फोर्स मेजर क्लॉज लागू नहीं था। इसलिए, न्यायालय ने मध्यस्थ और विशेष वाणिज्यिक न्यायालय दोनों के आदेशों को सही ठहराते हुए अपील को खारिज कर दिया।

यह फैसला मध्यस्थता की प्रक्रिया में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं को स्थापित करता है। इससे भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रिया में विश्वास बढ़ेगा। यह मामले उन विवादों के लिए एक मिसाल बनेगा, जहां पक्षकार न्यायिक प्रक्रिया की बजाए मध्यस्थता के जरिए समाधान चाहते हैं।


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