Wed, 01 January 2025 10:54:10pm
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में एनआईटी भोपाल के एक असिस्टेंट प्रोफेसर को महिला उत्पीड़न के आरोपों में सेवा से बर्खास्तगी के खिलाफ राहत दी। कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि आंतरिक शिकायत समिति (ICC) को किसी भी विभागीय जांच शुरू करने से पहले मामले को सुलझाने के लिए समझौते की कोशिश करनी चाहिए। यह मामला इस बात पर केंद्रित है कि क्या कानून का पालन किया गया और क्या कोर्ट का यह आदेश न्यायपूर्ण था?
मामले की पृष्ठभूमि:
एनआईटी भोपाल में मटेरियल्स एंड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत शिकायतकर्ता को महिला उत्पीड़न के आरोपों के बाद सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। शिकायतकर्ता का आरोप था कि उच्च संस्थान के वरिष्ठ सदस्य, जिनके साथ उनके व्यक्तिगत विवाद थे, ने उनके खिलाफ झूठे आरोप लगाए थे।
पॉश एक्ट का उल्लंघन:
कोर्ट ने मामले में कहा कि आंतरिक शिकायत समिति ने सेक्शन 10 और 11 के तहत आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया। इन धाराओं के अनुसार, अगर कोई महिला उत्पीड़न की शिकायत करती है, तो समिति को पहले विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की कोशिश करनी चाहिए थी। इसके बाद ही विभागीय जांच की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए।
किसी भी तरह की उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया:
जस्टिस संजय द्विवेदी ने कहा कि विभागीय जांच केवल एक दिखावा थी, क्योंकि न तो शिकायतकर्ताओं के बयान दर्ज किए गए थे और न ही उन्हें जमानत या क्रॉस-एक्सामिनेशन का मौका दिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह पूरी प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है और इसलिए, इस विभागीय जांच को कानून की नजर में अवैध मानते हुए खारिज कर दिया गया।
शिकायतकर्ता के पक्ष में फैसले का महत्व:
इस मामले में कोर्ट ने न केवल शिकायतकर्ता को राहत दी, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि कानून के उल्लंघन के बावजूद, किसी भी विभागीय कार्रवाई को उचित तरीके से प्रक्रिया में लाया जाना चाहिए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विभागीय कार्रवाई में पारदर्शिता और उचित प्रक्रिया का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
साक्ष्य की कमी:
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपों को साबित करने के लिए कोई भी ठोस साक्ष्य पेश नहीं किए गए थे, और ना ही आरोपियों को गवाहों के सामने आकर सवाल-जवाब करने का मौका दिया गया था। इसलिए, जांच को पूरी तरह से अवैध ठहराया गया।
अंतिम निर्णय:
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने विभागीय कार्रवाई को निरस्त करते हुए शिकायतकर्ता के पक्ष में आदेश दिया। कोर्ट ने यह माना कि विभागीय जांच पूरी तरह से कानून की प्रक्रिया के खिलाफ थी और इसका निष्कर्ष अवैध था।