Sun, 29 December 2024 06:46:25am
न्यायिक प्रणाली में मध्यस्थता प्रक्रिया को तेज़ और निष्पक्ष बनाने के लिए 2015 में एक महत्वपूर्ण संशोधन लागू किया गया था। हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह संशोधन उन मामलों पर भी लागू होगा जो 2015 से पहले शुरू हुए और उसके बाद भी जारी रहे। न्यायमूर्ति सुवीर सहगल का यह फैसला मध्यस्थता मामलों में एक महत्वपूर्ण मिसाल साबित हो सकता है।
मामला
इस याचिका को 1996 के मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (Arbitration and Conciliation Act, 1996) की धारा 11 के तहत दायर किया गया था। इसमें याचिकाकर्ता ने स्वतंत्र और निष्पक्ष मध्यस्थ ट्रिब्यूनल के गठन की मांग की थी। यह विवाद दिल्ली-बठिंडा रेलवे लाइन पर चार-लेन रेलवे ओवरब्रिज के निर्माण प्रोजेक्ट से जुड़ा था, जिसे 2006 में आवंटित किया गया था।
विवाद की पृष्ठभूमि
प्रोजेक्ट 15 महीनों में पूरा होना था, लेकिन देरी के कारण याचिकाकर्ता ने अनुबंध की राशि बढ़ाने और क्षतिपूर्ति की मांग की। कई प्रयासों के बाद भी सुलह नहीं हो पाई, और मध्यस्थता प्रक्रिया शुरू की गई। याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया कि ट्रिब्यूनल के सदस्य निष्पक्ष नहीं थे, लेकिन 2011 में हाई कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी।
2015 संशोधन और सेक्शन 12(5) की प्रासंगिकता
2015 के संशोधन के तहत धारा 12(5) जोड़ी गई, जिसमें कहा गया कि जिनका किसी पक्ष से संबंध हो, वे मध्यस्थ नियुक्त नहीं हो सकते। याचिकाकर्ता ने ट्रिब्यूनल के सदस्यों से इस प्रावधान के तहत खुलासा करने को कहा, लेकिन उनकी याचिका खारिज कर दी गई। याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि संशोधन के बाद नए मध्यस्थों की नियुक्ति अनिवार्य हो जाती है।
कोर्ट का विश्लेषण
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के Ellora Paper Mills Limited बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022) मामले का हवाला दिया। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि संशोधित सेक्शन 12(5) उन प्रक्रियाओं पर भी लागू होता है जो संशोधन से पहले शुरू हुई थीं। कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता का मध्यस्थता प्रक्रिया में शामिल होना उसकी सहमति नहीं दर्शाता, क्योंकि यह सिर्फ प्रारंभिक स्तर की सुनवाई थी।
कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए निष्पक्ष मध्यस्थों की नियुक्ति के आदेश दिए। इस फैसले से उन मामलों में निष्पक्षता सुनिश्चित होगी, जिनमें संशोधन से पहले मध्यस्थ नियुक्त हुए थे।