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विधवा बेटी भी मानी जाएगी परिवार का हिस्सा: हाईकोर्ट ने अनुकम्पा नियुक्ति पर दिया बड़ा आदेश



अजय त्यागी 2024-11-24 06:47:12 उत्तर प्रदेश

इलाहाबाद हाईकोर्ट - Photo : Internet
इलाहाबाद हाईकोर्ट - Photo : Internet
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि विधवा बेटी भी अपने पिता की मृत्युपरांत 'पारिवारिक सदस्य' की परिभाषा में शामिल होती है। इस फैसले ने न केवल संवैधानिक अधिकारों की नई व्याख्या की, बल्कि विधवा बेटियों के लिए रोजगार संबंधी कई बाधाओं को दूर करने का मार्ग प्रशस्त किया।

पृष्ठभूमि: याचिका और अस्वीकृति का सिलसिला
याचिकाकर्ता एक विधवा बेटी थीं, जिन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह अनुकम्पा नियुक्ति (compassionate appointment) मांगी थी। उनके पिता, जो भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) में T.O.A. (T.L.) के पद पर कार्यरत थे, का निधन 12 नवंबर 2011 को हुआ। परिवार के सदस्यों ने उन्हें इस नियुक्ति के लिए समर्थन दिया। याचिकाकर्ता ने शपथ पत्र के माध्यम से बताया कि वह अपने पिता और बेटे के साथ रह रही थीं और इस नौकरी से उन्हें परिवार का भरण-पोषण करने में मदद मिलेगी।

लेकिन, उनकी याचिका BSNL के असिस्टेंट जनरल मैनेजर (HR) ने यह कहते हुए खारिज कर दी कि "विधवा बेटी" को 'पारिवारिक सदस्य' नहीं माना जा सकता। इस अस्वीकृति से आहत होकर याचिकाकर्ता ने सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल का रुख किया, जिसने BSNL की नीति का हवाला देते हुए याचिका खारिज कर दी।

हाईकोर्ट का हस्तक्षेप और तर्क-वितर्क
याचिकाकर्ता की ओर से प्रस्तुत वकील ने तर्क दिया कि पति की मृत्यु के बाद वह अपने पिता पर निर्भर थीं, और विधवा होने से बेटी का दर्जा समाप्त नहीं होता। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मामलों जैसे विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020) और उर्मिला देवी बनाम यूपी पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (2011) का हवाला दिया।

वहीं, प्रतिवादी पक्ष ने तर्क दिया कि सरकारी नीति विधवा बेटी को परिवार का सदस्य नहीं मानती, इसलिए याचिकाकर्ता को अनुकम्पा नियुक्ति का अधिकार नहीं है।

कोर्ट का फैसला: बेटी हमेशा बेटी रहती है
न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने पाया कि विधवा बेटी भी 'पारिवारिक सदस्य' की परिभाषा में आती है। कोर्ट ने कहा, "विधवा बेटी को परिवार के सदस्य के रूप में न मानना संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 39(a) का उल्लंघन होगा।"

कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर विधवा बेटी अपने पिता पर निर्भर थी और परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर है, तो उसे compassionate appointment का अधिकार है। उन्होंने BSNL को निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता के मामले को दोबारा समीक्षा के लिए भेजा जाए।

संदर्भित निर्णय
इस फैसले में कोर्ट ने कई अन्य निर्णयों का हवाला दिया:

  1. स्मृति श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015)
  2. मीना दुबे बनाम मध्य प्रदेश सरकार (2020)
  3. सुनिता बनाम भारत सरकार (1996)

इन मामलों में भी 'पारिवारिक सदस्य' की व्यापक व्याख्या की गई और विधवा या अविवाहित बेटियों को शामिल किया गया।

सामाजिक न्याय की नई राह
यह फैसला न केवल कानून की दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है। यह उन महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण है, जो अपने जीवन में इस तरह की समस्याओं से जूझ रही हैं।


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