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सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: उपहार की शर्त के रूप में अनिवार्य सेवाएं असंवैधानिक और अमान्य



अजय त्यागी 2024-12-12 08:21:57 दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट - Photo : Internet
सुप्रीम कोर्ट - Photo : Internet
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हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जिसमें उसने एक उपहार विलेख की शर्तों को असंवैधानिक घोषित किया। इस फैसले में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी वराले की बेंच ने 1953 के एक मौखिक उपहार विलेख को चुनौती दी, जिसमें उपहार प्राप्तकर्ताओं और उनके उत्तराधिकारियों से अनिवार्य सेवाएं देने की शर्त रखी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस शर्त को "बगार" (बाध्य श्रम) या गुलामी के समान माना और इसे न केवल गलत और अवैध, बल्कि असंवैधानिक भी ठहराया।

मामला क्या था?
मूलतः 1953 में, एक बड़े ज़मींदार ने अपने कृषि श्रमिकों को अतिरिक्त भूमि उपहार में दी थी, लेकिन इसके बदले में उन्हें और उनके उत्तराधिकारियों से अनिवार्य सेवाएं देने की शर्त रखी थी। 1998 में, उपहार देने वालों के उत्तराधिकारियों ने अदालत में शिकायत की कि उपहार प्राप्तकर्ताओं ने सेवाएं देना बंद कर दिया था और उन्होंने भूमि का कब्जा वापस लेने का प्रयास किया। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक लाया गया, जब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया।

सुप्रीम कोर्ट की जांच: बगार या गुलामी का प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गहरी समीक्षा करते हुए यह कहा कि इस तरह की शर्तें न केवल कानूनी रूप से गलत हैं, बल्कि संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। कोर्ट ने यह बताया कि उपहार देने वालों ने जो सेवाएं देने की शर्त रखी थी, वह अनिवार्य रूप से "बगार" या मजबूरी में श्रम के रूप में मानी जा सकती हैं। ऐसे में यह शर्त संविधान के अनुच्छेद 23 के तहत बलात्कारी श्रम (Forced Labor) के खिलाफ दिए गए प्रावधानों का उल्लंघन करती है।

उपहार विलेख और बगार: कानूनी दृष्टिकोण
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संविधान लागू होने के बाद इस तरह के उपहार विलेखों में अनिवार्य और बिना मुआवजे वाली सेवाएं देने की शर्तें असंवैधानिक हैं। न्यायमूर्ति धूलिया ने स्पष्ट किया, "इस शर्त को अनिवार्य रूप से 'बगार' या मजबूरी में श्रम के रूप में देखा जा सकता है, जो न केवल गलत है बल्कि असंवैधानिक भी है।" इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह की शर्तें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं, खासकर अनुच्छेद 23, जो बलात्कारी श्रम को निषिद्ध करता है।

क्या था मूल उपहार विलेख में?
मूल उपहार विलेख में कहा गया था कि उपहार प्राप्तकर्ता और उनके उत्तराधिकारी अनिवार्य रूप से सेवाएं देंगे। कोर्ट ने यह माना कि इस शर्त को स्थायी और अनिवार्य रूप से लागू करने का कोई कानूनी आधार नहीं था, क्योंकि उपहार देने वाले का निधन काफी समय पहले हो चुका था और अब इस तरह की शर्त को लागू करने का कोई औचित्य नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि उपहार विलेख में सेवाओं का क्या मतलब था, यह स्पष्ट नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: उपहार की वैधता पर निर्णय
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि इस उपहार विलेख को पूरी तरह से अमान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि विवाद के समय तक कोई चुनौती नहीं दी गई थी। कोर्ट ने यह निर्णय लिया कि इस उपहार विलेख की शर्तें "पूर्व सेवाओं" से संबंधित हो सकती हैं, और इसलिए यह अनिवार्य नहीं था कि "स्थायी सेवाएं" दी जाएं। इस फैसले में, कोर्ट ने उपहार विलेख को इस प्रकार व्याख्यायित किया कि यह केवल "पूर्व सेवाओं" के रूप में समझा जा सकता है, न कि निरंतर सेवा की शर्त के रूप में।

फैसले का महत्व: न्याय और समानता की ओर कदम
यह फैसला भारतीय कानून में एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि "बगार" या गुलामी के रूप में किसी भी प्रकार की सेवा की शर्तें संविधान के तहत असंवैधानिक मानी जाएंगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से यह संदेश दिया कि न्याय और समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली शर्तों को खारिज किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज के लिए एक संकेत भी है कि किसी भी प्रकार की अवैध शर्तें और दमनकारी प्रथाओं को स्वीकार नहीं किया जाएगा।


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