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चिंताजनक: 5 वर्षों में भारतीय खेतों से 53 लाख फलदार और छायादार पेड़ गायब



अजय त्यागी [Input - amarujala.com] 2024-05-21 03:38:39 पर्यावरण

प्रतीकात्मक फोटो : Internet
प्रतीकात्मक फोटो : Internet

जलवायु परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि इंसानी लालच के चलते बीते पांच वर्षों में खेतों से 53 लाख फलदार व छायादार पेड़ गायब हो गए हैं। इनमें नीम, जामुन, महुआ और कटहल जैसे पेड़ प्रमुख हैं।  

अध्ययनकर्ताओं ने भारतीय खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का मानचित्र तैयार किया है। इसके अनुसार भारत में जंगल और वृक्षारोपण के बीच अंतर बहुत साफ नहीं है, लेकिन इतना जरूर स्पष्ट है कि इस भूमि उपयोग में गत पांच वर्षों के दौरान मौजूद पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा शामिल नहीं है, जो खेतों से लेकर शहरी क्षेत्रों में बिखरे थे। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गई। इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है। यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गई। अध्ययन के दौरान इन पेड़ों की 10 वर्षों तक निगरानी की गई। अध्ययन अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित हुआ है।  

तेलंगाना, महाराष्ट्र में ज्यादा नुकसान 

मध्य भारत में विशेष तौर पर तेलंगाना और महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर इन विशाल पेड़ों को नुकसान पहुंचा है। 2010-11 में मैप किए गए करीब 11 फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे। हालांकि, इस दौरान कई हॉटस्पॉट ऐसे भी दर्ज किए गए, जहां खेतों में मौजूद आधे (50 फीसदी) पेड़ गायब हो चुके हैं। अध्ययन से यह भी पता चला है कि 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख पेड़ खेतों से अदृश्य थे। यानी इस दौरान हर किमी क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किमी क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।  

पर्यावरण के लिए ठीक नहीं 

अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह खेती के तौर तरीकों में बदलाव आ रहा है वह न केवल पर्यावरण बल्कि किसानों के लिए भी हितकारी नहीं है। ऐसे ही बदलावों में से एक है खेतों से नीम, अर्जुन और महुआ जैसे छायादार पेड़ों का गायब होना।  ये पेड़ पर्यावरण के साथ-साथ खेतों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं, फिर भी इनकी निगरानी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। शोधकर्ता इस बात का यह अर्थ निकाल रहे हैं कि हमें सटीक रूप से यह जानकारी नहीं है कि यह पेड़ किस क्षेत्र में बहुतायत में हैं। पेड़ों के साथ इनसे जुड़ी सांस्कृतिक परंपराएं भी गायब होती जा रही हैं। अब ना इनकी  स्थापित परंपराओं के अनुसार पूजा होती है और ना ही इन पर सावन के झूले पड़ते हैं। 



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